अराजकतावाद पर भगत सिंह का दृष्टिकोण

By Bhagat Singh

भगत सिंह का स्पष्ट दृष्टिकोण “अराजकता ” के विचारधारा का बेहद बारीकी से अध्ययन करते हैं और साफ तौर पर कहते हैं कि ‘जब कोई व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता के लिए कहीं से पिस्तौल या बम लेकर निकलता है तो सभी नौकरशाह और उनके पिट्ठू ‘अनार्किस्ट-अनार्किस्ट’ कहकर दुनिया को डराते हैं. अनार्किस्ट एक बड़ा ख़ूंख़ार व्यक्ति समझा जाता है, जिसके दिल में कि ज़रा भी दया न हो, जो रक्तपिपासु हो, नाश-महानाश देखकर जो झूम उठता हो. अनार्किस्ट शब्द इतना बदनाम किया जा चुका है कि भारत में राज-परिवर्तनकारियों को भी – जनता में घृणा पैदा करने के लिए – अनार्किस्ट कहा जाता है. ‘हालांकि अराजकतावादी सर्वाधिक संवेदनशील मनवाले, सारी दुनिया का भला चाहने वाले होते हैं. उनके विचारों के साथ भिन्नता रखते हुए भी उनकी गम्भीरता, जनता से स्नेह, त्याग और उनकी सच्चाई आदि पर किसी प्रकार की शंका नहीं हो सकती.’ 

भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन के अध्ययन के साथ-साथ भगतसिंह ने अन्तरराष्ट्रीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का भी पर्याप्त अध्ययन किया व उस पर मनन किया. इसी सिलसिले में ‘किरती’ में ‘अराजकतावाद क्या है’ आदि लेख व कुछ अनुवाद छपे थे. मई 1928 से ‘किरती’ में भगतसिंह ने अराजकतावाद पर यह लेखमाला शुरू की, जो अगस्त तक चलती रही.

[I]

संसार में आज बहुत हलचल मची है. जाने-माने विद्वान दुनिया में शान्ति-स्थापना के कार्य में उलझे हैं लेकिन जिस शान्ति-स्थापना के प्रयास किये जा रहे हैं, वह अस्थायी नहीं वरन स्थिर, हमेशा स्थापित रहने वाली शान्ति है. उस तक पहुंचने के लिए बड़े-बड़े महापुरुष अपना जीवन अर्पित कर गये और कर रहे हैं लेकिन आज हम ग़ुलाम हैं. हमारी निगाहें कमज़ोर हैं, हमारे दिमाग़ कुन्द हैं. हमारा मन कमज़ोर होकर रो रहा है. हम दुनिया की शान्ति के लिए क्या चिन्ता करें, अपने देश के लिए ही कुछ नहीं कर पा रहे हैं. इसे अपनी बदक़िस्मती ही कहें. हमें तो अपने दकियानूसी विचार ही तबाह कर रहे हैं. हम भगवान और स्वर्ग पाने के लिए आत्मा-परमात्मा के विलाप में फंसे हैं. यूरोप को हम तुरन्त ही भौतिकवादी कह देते हैं. उनके जो विचार हैं, उनकी ओर ध्यान ही नहीं देते. हम आध्यात्मिक रुझान वाले जो हैं ! हम बड़े त्यागी जो हैं ! हमें इस संसार की बातें ही नहीं करनी चाहिए ! हमारी ऐसी दुरावस्था हो गयी है कि रोने को मन करता है. बीसवीं सदी में हालात सुधर रहे हैं. नौजवानों के सोच-विचार पर यूरोप के विचारों का कुछ-कुछ असर पड़ रहा है. और जो नौजवान दुनिया में कुछ तरक्की करना चाहते हैं, उन्हें वर्तमान युग के महान तथा उच्च विचारों का अध्ययन करना चाहिए.

आज समाज में होने वाले दमन के विरुद्ध कौन-सी आवाज़ उठ रही है और स्थायी शान्ति-स्थापना के लिए कैसे विचार उठ रहे हैं, उन्हें ठीक से समझे बिना इन्सान का ज्ञान अधूरा रह जाता है. आज हम संक्षेप में साम्यवाद और समाजवाद आदि अनेक है.

जनता ‘अराजकता’ शब्द से बहुत डरती है. जब कोई व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता के लिए कहीं से पिस्तौल या बम लेकर निकलता है तो सभी नौकरशाह और उनके पिट्ठू ‘अनार्किस्ट-अनार्किस्ट’ कहकर दुनिया को डराते हैं. अनार्किस्ट एक बड़ा ख़ूंख़ार व्यक्ति समझा जाता है, जिसके दिल में कि ज़रा भी दया न हो, जो रक्तपिपासु हो, नाश-महानाश देखकर जो झूम उठता हो. अनार्किस्ट शब्द इतना बदनाम किया जा चुका है कि भारत में राज-परिवर्तनकारियों को भी – जनता में घृणा पैदा करने के लिए – अनार्किस्ट कहा जाता है. डॉक्टर भूपेन्द्रनाथ दत्त ने बंगला में लिखी पुस्तक ‘अप्रकाशित राजनीतिक इतिहास’ के प्रथम भाग में इसका ज़िक्र किया है कि हमें बदनाम करने के लिए सरकार भले ही अनार्किस्ट-अनार्किस्ट कहती रहे, वास्तव में वह राज-परिवर्तनकारियों की टोली थी और अराजकतावाद तो एक बहुत ऊंचा आदर्श है. उस ऊंचे आदर्श तक तो हमारी साधारण जनता क्या सोचती, क्योंकि वह तो राज-परिवर्तनकारियों से आगे युगान्तकारी भी नहीं थे. वे लोग मात्र राज-परिवर्तनकारी ही थे. ख़ैर.

हम चर्चा कर रहे थे कि अराजकतावादी शब्द बहुत बदनाम किया गया है और स्वार्थी पूंजीपतियों ने जिस तरह ‘बोल्शेविक’, ‘कम्युनिस्ट’, ‘सोशलिस्ट’ आदि शब्द बदनाम किये हैं, उसी प्रकार इस शब्द को भी बदनाम किया हालांकि अराजकतावादी सर्वाधिक संवेदनशील मनवाले, सारी दुनिया का भला चाहने वाले होते हैं. उनके विचारों के साथ भिन्नता रखते हुए भी उनकी गम्भीरता, जनता से स्नेह, त्याग और उनकी सच्चाई आदि पर किसी प्रकार की शंका नहीं हो सकती.

‘अनार्किस्ट’, जिसके लिए हिन्दी में ‘अराजकतावादी’ शब्द ही प्रयोग में लाया जाता है, यूनानी भाषा का शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है – एन = नॉट, आर्की = रूल, अर्थात शासनविहीन – किसी भी प्रकार से शासित न होना. इन्सान में पहले से ही अधिक से अधिक स्वाधीनता पाने की चाह रही है और बीच-बीच में पूर्ण स्वतन्त्रता, जोकि अराजकतावादी आदर्श है, से मिलता-जुलता विचार प्रकट हुआ. उदाहरणस्वरूप काफ़ी पहले एक यूनानी दार्शनिक ने कहा था:
We wish neither to belong to the governing class nor to the governed. 
अर्थात, हम न शासक बनना चाहते हैं और न ही प्रजा.

मैं समझता हूँ कि हिन्दुस्तान में विश्व-भ्रातृत्व और संस्कृत के वाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ आदि में भी यही भाव है. अगर हम बहुत पुरानी मान्यताओं से किसी ख़ास नतीजे तक न भी पहुँच सकें तो भी यह तो स्वीकारना पड़ेगा कि यह विचार उन्नीसवीं अर्थात पिछली सदी के आरम्भ में एक फ्रांसीसी दार्शनिक प्रूद्धों ने स्पष्ट तौर पर जनता के समक्ष रखा और उसका खुलेआम प्रचार किया इसलिए उन्हें अराजकतावाद का जन्मदाता कहा जाता है. उन्होंने इसका प्रचार आरम्भ किया. बाद में एक रूसी बहादुर, बैकुनिन ने इसके प्रसार और सफलता के लिए काफ़ी काम किया. बाद में जॉन मास्टर प्रिन्स क्रोपोटकिन जैसे अनेक अराजकतावादियों ने जन्म लिया. आजकल अमेरिका में श्रीमती एमा गोल्डमैन और अलेक्ज़ेण्डर ब्रैकमैन आदि इसके प्रचारक हैं.

अराजकतावाद के सन्दर्भ में श्रीमती गोल्डमैन ने लिखा है –

Anarchism – The philosophy of a new social order based on liberty unrestricted by man-made law. The theory that all forms of Government rest on violence, and therefore wrong and harmful, as well as unnecessary. (अर्थात) अराजकतावाद एक नया दर्शन है जिसके अनुसार एक नया समाज बनेगा. जनता का रहन-सहन या भ्रातृत्व ऐसा होगा जिसमें कि मनुष्य के बनाये नियम कोई अवरोध न पैदा कर सकेंगे. उनके अनुसार किसी भी शासन की ज़रूरत नहीं महसूस होती, क्योंकि प्रत्येक सरकार दमन पर टिकी होती है इसलिए यह अनावश्यक है.

इससे पता चलता है कि अराजकतावादी किसी भी प्रकार की सरकार नहीं चाहते और यह बात सत्य है लेकिन यह सुनकर हम भयभीत होते हैं. हमारे मनों में कई प्रकार के हौवे पैदा किये जाते हैं. हम अंग्रेज़ी सरकार के बाद अपनी सरकार बनाकर भी भूत देख-देखकर डरें और हमेशा थर-थर कांपते रहें, यही हमारे शासकों की नीयत होती है. ऐसी हालत में हम कैसे एक मिनट के लिए भी सोच सकते हैं कि ऐसा भी कोई समय आयेगा कि जब सरकार के बिना भी हम सुखी और स्वतन्त्र रह सकेंगे लेकिन इसमें हमारी स्वयं की दुर्बलताएं हैं. आदर्श या भावना का कोई क़सूर नहीं है.
अराजकतावाद के अनुसार जिस आदर्श स्वतन्त्रता की कल्पना की जाती है वह पूर्ण स्वतन्त्रता है, जिसके अनुसार न तो मन पर भगवान या धर्म का भूत सवार हो, न माया या सम्पत्ति के लालच का जनून समाया हुआ हो और न ही शरीर पर किसी प्रकार की या सरकारी ज़ंजीरें कसी हुई हों. इसका अर्थ यह है कि वह (निम्नोक्त) तीनों मोटी-मोटी बातों को दुनिया से पूरी तरह ख़त्म कर देना चाहते हैं: 1. चर्च, भगवान और धर्म, 2. स्टेट (सरकार), 3. प्राइवेट प्रापर्टी (निजी सम्पत्ति).

यों तो यह विषय बहुत रोचक और विस्तृत है जिसके लिए काफ़ी कुछ लिखा जा सकता है लेकिन अब यह लेख हम बहुत अधिक बढ़ा नहीं सकते, क्योंकि स्थानाभाव है इसलिए हम मोटी-मोटी बातों का ही उल्लेख करेंगे.

1. भगवान और धर्मः 

सबसे पहले हम भगवान और धर्म को लेते हैं. हिन्दुस्तान में भी अब इन दोनों भूतों के विरुद्ध आवाज़ उठ रही है, लेकिन यूरोप में तो पिछली सदी से ही इसके विरुद्ध विद्रोह उठ खड़ा हुआ था. वह तो आरम्भ ही उस युग से करते हैं जबकि जनता का ज्ञान बहुत ही कम था. उस समय वह प्रत्येक चीज़ से, विशेषकर दैवी शक्तियों से डरते थे. उनमें आत्मविश्वास क़तई न था. वे स्वयं को ‘ख़ाक का पुतला’ कहते थे. वे कहते हैं कि धर्म और दैवी शक्तियां ईश्वर और अज्ञानता का परिणाम हैं, इसलिए उनके अस्तित्व का भ्रम मिटा देना चाहिए. साथ ही यह भी कि हम छुटपन से बच्चों को यह बताना शुरू कर देते हैं कि सबकुछ भगवान है, मनुष्य तो कुछ भी नहीं अर्थात मिट्टी का पुतला है. इस तरह के विचार मन में आने से मनुष्य में आत्मविश्वास की भावना मर जाती है. उसे मालूम होने लगता है कि वह बहुत निर्बल है. इस तरह वह भयभीत रहता है. जितने समय यह भय मौजूद रहेगा उतनी देर पूर्ण सुख और शान्ति नहीं हो सकती.

हिन्दुतान में महात्मा बुद्ध ने पहले भगवान के अस्तित्व से इन्कार किया था. उनकी ईश्वर में आस्था नहीं थी. अब भी कुछ साधु ऐसे हैं जो भगवान के अस्तित्व को नहीं मानते. बंगाल के सोहमा स्वामी भी उनमें हैं. आजकल निरालम्ब स्वामी सोहमा स्वामी की एक पुस्तक ‘कामन सेंस’ अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुई है. उन्होंने भगवान के अस्तित्व के विरुद्ध बहुत जमकर लिखते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया है, लेकिन वे अराजकतावादी नहीं हो गये. ‘त्याग’ एवं ‘योग’ के बहाने वे अब यों ही नहीं भटकते. इस प्रकार वैज्ञानिक युग में ईश्वर के अस्तित्व को समाप्त किया जा रहा है जिससे धर्म का भी नामोनिशान मिट जायेगा. वास्तव में अराजकतावादियों के सिरमौर बैकुनिन ने अपनी किताब ‘गॉड एण्ड स्टेट’ (ईश्वर और राज्य) में ईश्वर को अच्छा लताड़ा है. उन्होंने एंजील की कहानी सामने रखी और कहा कि ईश्वर ने दुनिया बनायी और मनुष्य को अपने जैसा बनाया. बहुत मेहरबानी की. लेकिन साथ ही यह भी कह दिया कि देखो, बुद्धि के पेड़ का फल मत खाना. असल में ईश्वर ने अपने मन-बहलाव के लिए मनुष्य और वायु को बना तो दिया मगर वह चाहता था कि वे सदा उसके ग़ुलाम बने रहें और उसके विरुद्ध सर ऊंचा न कर सकें इसलिए उन्हें विश्व के समस्त फल तो दिये लेकिन अक्ल नहीं दी. यह स्थिति देखकर शैतान आगे बढ़ा. But here steps in Satan, the eternal rebel, the first free thinker and the emancipator of the world. यानी, दुनिया के चिर विद्रोही, प्रथम स्वतन्त्रचेता और दुनिया को स्वतन्त्र करने वाले शैतान – आदि आगे बढ़े, आदमी को बग़ावत सिखायी और बुद्धि का फल खिला दिया. बस, फिर सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञाता परमात्मा किसी निम्न दर्ज़े की कमीनी मानसिकता की भांति क्रोध में आ गया और स्वनिर्मित दुनिया को स्वयं ही बद्दुआएं देने लग पड़ा. ख़ूब !

प्रश्न उठता है कि ईश्वर ने यह दुखभरी दुनिया क्यों बनायी? क्या तमाशा देखने के लिए? तब तो वह रोम के क्रूर शहंशाह नीरो से भी अधिक ज़ालिम हुआ. क्या यह उसका चमत्कार है? इस चमत्कारी ईश्वर की क्या आवश्यकता है? बहस लम्बी हो रही है इसलिए इसे यहीं समाप्त करते हुए इतना ही कहेंगे कि हमेशा से स्वार्थियों ने, पूंजीपतियों ने धर्म को अपनी-अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए इस्तेमाल किया है. इतिहास इसका साक्षी है. ‘धैर्य धारण करो! अपने कर्मों को देखो!’ ऐसे दर्शन ने जो यातनाएं दी हैं, वे सबको मालूम ही हैं.

लोग कहते हैं कि ईश्वर के अस्तित्व को अगर नकारा जाये तो क्या होगा ? दुनिया में पाप बढ़ जायेगा. अन्धेरगर्दी मच जायेगी. लेकिन अराजकतावादी कहते हैं कि उस समय मनुष्य इतना अधिक ऊंचा हो जायेगा कि स्वर्ग का लालच और नरक का भय बताये बिना ही वह बुरे कार्यों से दूर हो जायेगा और नेक काम करने लगेगा. वास्तव में बात यह है कि हिन्दुस्तान में श्रीकृष्ण निष्काम कर्म करने का बहुत उपदेश दे गये हैं. गीता दुनिया की एक प्रमुख पुस्तक मानी जाती है, लेकिन श्रीकृष्ण निष्काम भाव के साथ कर्म की प्रेरणा देते हुए भी अर्जुन को मृत्योपरान्त स्वर्ग और विजय प्राप्त कर राजभोग का लालच देने से पीछे न रहे. लेकिन आज हम अराजकतावादियों के बलिदान देखते हैं तो मन में आता है कि उनके पैर चूम लें. साको और वेंजरी की कहानियां हमारे पाठक पढ़ ही चुके हैं. न ईश्वर को प्रसन्न करने का कोई लालच है और न स्वर्ग में जाकर मौज़ मारने का लोभ, न पुनर्जन्म में ही सुख मिलने की आशा लेकिन फिर भी हंसते-हंसते लोगों के लिए, सत्य के लिए जीवन न्योछावर कर देना क्या कोई मामूली बात है ! अराजकतावादी तो कहते हैं कि एक बार मनुष्य स्वतन्त्र हुआ तो उसका जीवन बहुत ऊंचा हो जायेगा. ख़ैर, एक-एक प्रश्न पर लम्बी बहसें हो सकती हैं, लेकिन यहां स्थानाभाव है.

(May, 1928)


[II]

2. स्टेट या सरकार

इससे आगे की बात जो वे सामने नहीं लाना चाहते, वह है राजसत्ता। अगर हम राजसत्ता का मूल खोजें तो दो परिणामों पर पहुँचते हैं. कुछ लोगों की धारणा है कि जंगली मनुष्य की अक्ल विकसित होती रही, और लोगों ने मिल-जुलकर रहना आरम्भ कर दिया. इस तरह राजसत्ता का जन्म हुआ. इसे उद्भव कहते हैं. दूसरे यह कि लोगों को जंगली जानवरों से मुक़ाबले के लिए तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मिलना और एकजुट होना पड़ा. फिर गुटों में लड़ाइयाँ हुईं और प्रत्येक को ताक़तवर शत्रु का भय सताने लगा। इस प्रकार मिल-जुलकर राज क़ायम किये गये. उसके पश्चात आवश्यकता या यूटीलिटेरियन थ्योरी यही है. हम चाहे दोनों को ही लें. उद्भव वालों से पूछा जा सकता है कि अब ही क्यों उद्भव रुक गया ? पंचायती राज के बाद अराजकतावाद ही आता है और अन्यों को यह उत्तर है कि अब शासन की कोई ज़रूरत ही नहीं. यह बहस तो पहले हो चुकी है. अगर इन या अन्य ऐसी बातों की ओर अधिक ध्यान न भी दें तो भी यह स्वीकारना होगा कि लोगों ने वास्तव में सौदा किया था, जिसे फ्रांस के प्रसिद्ध युगान्तकारी रूसो ने सामाजिक सौदा कहा है. सौदा यह कि मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता का एक विशेष भाग अर्थात अपनी आय का एक हिस्सा, बलिदान करेगा जिसके एवज में उसे सुरक्षा और शान्ति उपलब्ध करायेंगे. इस सबके पश्चात विचारणीय है कि क्या वह सौदा पूरी तरह ठीक रहा ? शासन क़ायम हो जाने के पश्चात राजसत्ता और ईश्वर ने साज़िश रच ली. लोगों से कहा कि हम ईश्वर की ओर से भेजे गये हैं. लोग ईश्वर से भयभीत रहे और राजा मनमाने ज़ुल्म करते रहे। ज़ार (रूस) और लुई (फ्रांस) के उदाहरण बहुत अच्छे ढंग से सब ढोल की पोल खोल देते हैं क्योंकि वह साज़िश बहुत समय तक चल नहीं सकी, पोप गेगोरी और किग हैनरी में फूट पड़ गयी। पोप ने लोगों को हैनरी शासन के विरुद्ध भड़काया. इसी तरह हैनरी ने ईश्वर का हौवा दूर करते हुए लोगों को पोप के विरुद्ध भड़काया. कहने का आशय यह है कि स्वार्थी लोग लड़े और वे आडम्बर टूटे. ख़ैर, पुनः लोग उठे और ज़ुल्मी लुई को मार डाला. दुनिया में भगदड़ मच गयी. पंचायती राज स्थापित हुए, लेकिन पूर्ण स्वतन्त्रता तब भी न मिली. उधर जिस वक़्त आस्ट्रिया का मन्त्री मैटरनिक एकतन्त्र शासन की तरफ़ से दमन कर लोगों को उसका विरोधी बना रहा था, उधर अमेरिका के पंचायती राज में बेचारे ग़ुलामों की बुरी स्थिति हो गयी थी. तब फ्रांस के ग़रीब लोग भी अनेक बार कोशिशें करके उठ और गिर रहे थे. आज भी फ्रांस में पंचायती राज है, लेकिन लोग पूरी तरह स्वतन्त्र नहीं हैं. इसलिए अराजकतावादी कहते हैं कि कोई भी राज नहीं चाहिए. बाक़ी सब बातों में वे साम्यवादियों के समान हैं लेकिन इन दोनों बातों का अन्तर है. प्रख्यात साम्यवादी कार्ल मार्क्स के प्रख्यात साथी फ़्रेडरिक एंगेल्स ने भी अपने और मार्क्स के साम्यवाद के सम्बन्ध में लिखा है कि हमारा भी यही आदर्श है: Communism also looks forward to a period in the evolution of society when the State will become superfluous and having no longer any function to perform, will die away. अर्थात वह भी समझते हैं कि अन्त में राजसत्ता की कोई ज़रूरत नहीं रहेगी.

ख़ैर, तात्पर्य तो यह है कि वे चाहते हैं कि राजसत्ता न रहे और लोग भ्रातृत्व से रहें. मैकियावली इटली का राजनीतिज्ञ था. वह कहता था कि राज कोई न कोई ज़रूर होना चाहिए. चाहे वह पंचायती हो या एक राजा का. उसकी यह मान्यता थी कि राज हो और मज़बूत लोहे के हाथ-सा हो लेकिन अराजकतावादी कहते हैं कि नरम और गरम क्या ? हमें न पंचायती राज चाहिए और न कोई अन्य. वे कहते हैं: “Undermine the whole conception of a State and then and then and then only we have Liberty worth having.” अर्थात राजसत्ता का विचार भी दुनिया में ख़त्म किया जाये, तभी कोई स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकेगी.

लोग कहेंगे कि भला यह कोई बात हुई, राजसत्ता न होगी, क़ानून न होगा, क़ानून मनवाने वाली पुलिस न होगी तो अन्धेरगर्दी मच जायेगी. राजनीति के प्रख्यात दार्शनिक डेविड थोरियन ने कहा है कि “Law never made man a whit more just, and by means of their respect for it even the well disposed are daily made gents of injustice.”

इसमें तो कोई असत्यता नज़र नहीं आती. हमें नज़र आता है कि ज्यों-ज्यों क़ानून सख़्त होते हैं त्यों-त्यों भ्रष्टाचार भी बढ़ता है. यह तो आम शिकायत है कि पहले किसी प्रकार की लिखा-पढ़ी के बिना हज़ारों रुपयों का लेन-देन होता था और कोई बेईमानी नहीं करता था. अब हस्ताक्षर, अँगूठे, साक्ष्य और रजिस्ट्रियाँ होती हैं लेकिन बेईमानी बढ़ रही है. फिर वे तो इसका निदान यही सुझाते हैं कि प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे, सभी कार्य उसकी इच्छानुसार होते रहें, तब कोई पाप या जुर्म न होगा.

“Crime is naught but misdirected energy. So long as every institution of today, economic, political, social and moral conspires to misdirect human energy into wrong channelsw, so long as most people are out of place doing the things they want to do, living a life they want to live, crime will be inevitable and all the laws on the statues can only increase but never do away with crime.”

अर्थात मनुष्य को अगर पूर्ण स्वतन्त्रता हो तो वह अपनी इच्छानुसार काम-काज कर सके, अन्याय न हों. अगर इस तरह पूँजीपतियों द्वारा शोषण जारी रहेगा तो बड़े-बड़े क़ानून भी कुछ नहीं कर सकते. लोग कहते हैं कि मनुष्य का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि बिना शासन के रह ही नहीं सकता. बेलगाम होगा तो बहुत नुक़सान पहुँचायेगा. इस मानव-स्वभाव के सम्बन्ध में लॉर्ड ने अपनी किताब ‘प्रिसिपल्स ऑफ़ पोलिटिक्स’ में लिखा है कि चींटियाँ एकजुट रह सकती हैं, जानवर एकजुट रह सकते हैं, लेकिन मनुष्य नहीं रह सकते. मनुष्य ईश्वर की ओर से ही लालची, अमानवीय और सुस्त बना है. ऐसी बातें सुनकर एमा गोल्डमैन ग़ुस्से में आ गयीं और उन्होंने ‘अनार्किज़्म एण्ड अदर एसेज़’ किताब में लिखा है: “Every fool from king to policeman, from the flat headed person to the visionless dausier in science presumes to speak authoritavely of human nature.”

यानी जो भी गधा उठता है वही बढ़कर मानव स्वभाव पर अधिक ज़ोरदार राय देता है. वह कहती हैं कि जो जितना बड़ा मूर्ख हो उतना ही वह इस सम्बन्ध में अपनी राय को बहुमूल्य समझता है. आज तक किसी मनुष्य को पूर्ण स्वतन्त्रता देकर भी देखी है जो हमेशा उसकी बुराइयों का रोना रोया जाता है. वे कहती हैं कि छोटी पंचायतें बनें और स्वतन्त्रता से काम हो.

3. निजी सम्पत्ति

तीसरी सबसे आवश्यक और महत्त्वपूर्ण बात है निजी सम्पत्ति. वास्तव में दुनिया को पेट का सवाल ही चला रहा है. इसके लिए ही धैर्य, सन्तोष आदि उपदेश गढ़े गये. सभी कुछ इसके लिए किया जाता रहा. अब अराजकतावादी, साम्यवादी, समाजवादी सभी सम्पत्ति के विरुद्ध हो गये हैं. वे कहते हैं: “Property is robbery.” (Proudhon) but without risk or danger to the robber. – Emma Goldman.

सम्पत्ति बनाने का विचार मनुष्यों को लालची बना देता है. वह फिर पत्थर-दिल होता चला जाता है. दयालुता और मानवता उसके मन से मिट जाती है. सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए राजसत्ता की आवश्यकता होती है. इससे फिर लालच बढ़ता है और अन्त में परिणाम – पहले साम्राज्यवाद, फिर युद्ध होता है. ख़ून-ख़राबा और अन्य बहुत नुक़सान होता है. अगर सबकुछ संयुक्त हो जाये तो कोई लालच न रहे. मिल-जुलकर सभी काम करने लगें. चोरी, डाके की कोई चिन्ता न रहे. पुलिस, जेल, कचहरी, फ़ौज की ज़रूरत न रहे. और मोटे पेटवाले, हराम की खाने वाले भी काम करें. थोड़ा समय काम करके पैदावार अधिक होने लगे. सभी लोग आराम से पढ़-लिख भी सकें. अपनेआप शान्ति भी रहे, ख़ुशहाली भी बढ़े अर्थात वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि संसार से अज्ञानता दूर करना बहुत आवश्यक है.

असल में सम्पत्ति सबसे बड़ा प्रश्न है, इसलिए इस पर विचार के लिए एक अन्य लेख आवश्यक है. इसी वास्तविक प्रश्न पर कार्ल मैनिग ने स्पष्ट रूप से घोषित कर दिया था – ‘Ask for work and if they don’t give you work ask for bread and if they do not give you work or bread, then take bread.’ अर्थात काम भी न मिले और रोटी भी प्राप्त न हो तो रोटी छीनकर खा लो क्योंकि किसी को क्या अधिकार है कि वह केक खाते हुए मौज़ उड़ाये जबकि दूसरे को रोटी के सूखे टुकड़े भी न जुटें. इसी मसले पर उन्होंने कहा कि विपन्न के घर जन्म लेने से कोई उम्रभर घिसटते गुज़ारे एवं सम्पन्न के घर जन्मने से ही किसी को हराम की खाने का अवसर क्यों प्राप्त हो ? ‘माया से माया मिले’ वाली बात भी रोकी जाये. इन्हीं कारणों से सभी के लिए समान अवसर वाले सिद्धान्त के समक्ष उन्होंने निजी सम्पत्ति की पवित्रता का भ्रम तोड़ा. वे कहते हैं कि सम्पत्ति भ्रष्टाचार से जुटती है और उसकी रक्षा के लिए क़ानून की आवश्यकता पड़ती है जिससे कि राजसत्ता की आवश्यकता होती है. दरअसल यही सारी गड़बड़ियों की जड़ है. इसे समाप्त करते ही सारी गड़बड़ियाँ दूर हो जायेंगी. आख़िर वे क्या चाहते हैं, काम कैसे चलेगा ? यही काफ़ी विस्तृत प्रश्न है.

लेख में ऊपर यह बताया गया है कि अराजकतावादी पहले तो ईश्वर और धर्म के विरुद्ध हैं, क्योंकि वह मानसिक ग़ुलामी के कारण हैं. दूसरे राजसत्ता के विरुद्ध हैं, क्योंकि यह शारीरिक ग़ुलामी है. वे कहते हैं कि मनुष्य को स्वर्ग का लालच, नरक का भय या क़ानून का डण्डा दिखाकर भले काम की प्रेरणा देना ग़लत है. वैसे भी मनुष्य जैसे उच्च जीव का अपमान है. स्वतन्त्रता से ज्ञान प्राप्त करके अपनी इच्छा अनुसार काम करें और प्रसन्नता से जीवन व्यतीत करें. लोग कहते हैं कि इसका अर्थ यह हुआ कि हम उसे पहले की जंगली स्थितियों में रखना चाहते हैं, जिस प्रकार हम आरम्भ में थे लेकिन यह ग़लत है. उस समय अज्ञानता थी. मनुष्य अधिक दूर तक नहीं जा सकता था लेकिन अब पूर्ण ज्ञान से दुनिया में सम्पर्क स्थापित करते हुए भी वह स्वतन्त्र रहे. धन का लोभ न हो. और धन का प्रश्न भी समाप्त कर दिया जाये.

अगले लेख में हम इस दर्शन के सम्बन्ध में कुछ अन्य बातें, अनेक प्रकार के विचार, इतिहास और इसके बदनाम होने के कारण और इसमें हिंसा भी शामिल होने के बारे में लिखेंगे।

(June, 1928)

[III]

पिछले दो लेखों में हमने अराजकतावाद के सम्बन्ध में सर्वसाधारण तथ्य लिखे थे. ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय पर जोकि दुनिया के पुराने विचारों एवं परम्पराओं के विरुद्ध नया-नया ही सामने आये, इतने छोटे लेख से पाठकों की जिज्ञासा को शान्त नहीं किया जा सकता. इस प्रकार अनेक शंकाएँ जन्म लेती हैं. फिर भी हम उनके मोटे-मोटे सिद्धान्त पाठकों के सामने रख रहे हैं जिनसे कि वे इनकी मोटी-मोटी बातें समझ चुके होंगे. अब हम इसी तरह साम्यवाद, समाजवाद और नाशवाद जैसे सिद्धान्तों पर लिखेंगे, ताकि हिन्दुस्तान भी समझ सके कि विदेशों में कौन-कौन-सी विचारधाराएँ चलन में हैं. मगर किसी अन्य विषय पर लिखने से पूर्व अराजकतावाद के सम्बन्ध में बहुत-सी महत्त्वपूर्ण एवं रोचक बातें लिखने का विचार है जिसमें नाशवाद का इतिहास भी है, अर्थात अराजकतावादियों ने अब तक क्या किया ? वे किस प्रकार बदनाम किये गये ?

ऊपर हमने उनके विचार बताये हैं. अब हम यह बताना चाहते हैं कि उन्होंने इन विचारों को अमलीजामा पहनाने के लिए क्या किया और किस प्रकार वह बल-प्रयोग से बहुत मज़बूत सरकारों से भिड़ जाते थे और उन मुठभेड़ों में जान की बाज़ी तक लगा देते थे.

दरअसल जब दमन और शोषण सीमा से अधिक हो जाये, जब शान्तिमय और खुले काम को कुचल दिया जाये, तब कुछ करने वाले हमेशा गुप्त रूप से काम करना शुरू कर देते हैं और दमन देखते ही प्रतिशोध के लिए तैयार हो जाते हैं. यूरोप में जब ग़रीब मज़दूरों का भारी दमन हो रहा था, उनके हर तरह के कार्य को कुचल डाला गया था या कुचला जा रहा था, उस समय रूस के सम्पन्न परिवार से माईकल बैकुनिन को जो रूस के तोपख़ाने में एक बड़े अधिकारी थे, पोलैण्ड के विद्रोह से निबटने के लिए भेजा गया था. वहाँ विद्रोहियों को जिस प्रकार ज़ुल्म करके दबाया जा रहा था, उसे देखकर उनका मन एकदम बदल गया और वे युगान्तकारी बन बैठे. अन्त में उनके विचार अराजकतावाद की ओर झुक गये. उन्होंने सन् 1834 में नौकरी त्याग दी. उसके पश्चात बर्लिन और स्विट्ज़रलैण्ड के रास्ते पेरिस पहुँचे. उस समय आमतौर पर सरकारें इनके विचारों के कारण इनके विरुद्ध थीं. 1864 तक वह अपने विचार पुख़्ता करते रहे और मज़दूरों में प्रचार करते रहे.

बाद में उन्होंने राष्ट्रीय मज़दूर कांग्रेस पर क़ब्ज़ा कर लिया और 1860 से 1870 तक आप अपने दल को संगठित करते रहे. 4 सितम्बर, 1870 में पेरिस में तीसरा पंचायती राज क़ायम करने की घोषणा की गयी. फ्रांस में कई स्थानों पर पूँजीपति सरकार के विरुद्ध लड़ाइयाँ व विद्रोह हुए. लियोन शहर में विद्रोह भड़का. उसमें बैकुनिन शामिल हुए. इनका पलड़ा ही भारी रहा. कुछ ही दिनों बाद वहाँ उनकी हार हो गयी और वे वहाँ से लौट आये.

1873 में हसपानिया में बग़ावत खड़ी हो गयी. उसमें शामिल होकर ये लड़े. कुछ दिन तक तो मामला ख़ूब गरम रहा लेकिन अन्त में वहाँ भी हार हो गयी. वहाँ से लौटे तो इटली में बग़ावत जारी थी. वहाँ जाकर इन्होंने युद्ध की बागडोर हाथ में ले ली. गैरीबाल्डी भी कुछ विरोध के बाद उनके साथ मिल गये थे. कुछ दिनों के दंगों के बाद वहाँ भी हार हो गयी. इस तरह उनका सारा जीवन लड़ने-भिड़ने में गुज़र गया. अन्त में जब वह बूढ़े हो गये तो उन्होंने अपने साथियों को ख़त लिखे कि अब मैं अपने हाथों से नेतृत्व की बागडोर छोड़ता हूँ ताकि काम में रुकावट न पड़े. अन्त में जुलाई, 1876 में बीमारी की हालत में उनका निधन हो गया.

बाद में बहुत ताक़तवर चार व्यक्ति इस कार्य के लिए कमर कसकर तैयार हुए. वे थे कारलो केफियर्स, इटली के रहने वाले, काफ़ी सम्पन्न परिवार से थे. दूसरे, माला टेम्टा. आप बड़े विद्वान डॉक्टर थे. लेकिन आप सभी कुछ छोड़कर युगान्तकारी बन गये. तीसरे, पाल ब्रसी भी बड़े मशहूर डॉक्टर थे. आप भी इसी कार्य में लग गये. चौथे थे पीटर क्रोपोटकिन. आप रूसी परिवार से थे। कई बार मज़ाक़ में कहा जाता था कि असल में आपको ही ज़ार बनना था. आप सभी बैकुनिन के अनुयायी थे. आपने कहा कि हम ज़बान से बहुत प्रचार कर चुके लेकिन कोई असर नहीं होता. नयी-नयी विचारधाराएँ सुनाकर थक गये हैं. जनता पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता इसलिए अब व्यावहारिक प्रचार आरम्भ किया जाये. क्रोपोटकिन ने कहा –

“A single deed makes more propaganda in a few days than a thousand pamphlets. The Government defends itself. It rages prtilessly, but by this it only caused further deeds to be committed by one or more persons and drives the insurgents to heroism. One deed bringsforth another, opponents join the mutiny, the Govt. splits into factions, harshness intesifies the conflict, concessions come too late, the revolution  breaks out.”

अर्थात एक ही व्यावहारिक काम हज़ारों किताबों और पत्रिकाओं से अधिक प्रचार कर देता है. सरकार स्वयं अपनी रक्षा करती है. उसे ग़ुस्सा आता है. जलन होती है और वह दमन करती है. कई लोग थककर प्रतिशोध के लिए तैयार हो जाते हैं. फिर कभी ठीक उसी तरह के काम होते हैं तो उन्हें शहीद कर दिया जाता है. विरोधी भी आकर शामिल हो जाते हैं. सरकार तड़पती है. आपस में उनकी नोक-झोंक होने लगती है. जनता की शर्तें स्वीकारने में बेवजह देर की जाती है और इन्‍क़लाब की जंग शुरू हो जाती है. यह विचारों का दृश्य आपके सामने रखा गया है. पीटर क्रोपोटकिन रूसी युगान्तकारियों में से थे. पकड़े जाने के बाद पीटर पाल नामक क़िले में बन्दी बनाये गये थे. उस सख़्त जेल में से ये भाग गये और यूरोप में जाकर अपने विचारों का प्रचार करने लगे. उपरोक्त बातों से पता चलता है कि उस समय उनकी मनःस्थिति क्या थी.

सबसे पहले उन्होंने बर्न नामक शहर में (फ्रांस में) मज़दूरों के शासन की स्थापना वाले दिन की बरसी मनायी. यह बात 18 मार्च, 1876 की है. उस दिन उन्होंने मज़दूरों का जुलूस निकाला और बाज़ार में पुलिस से हाथापाई भी कर बैठे. जब सिपाहियों ने उनके लाल झण्डे को उखाड़ने का प्रयास किया, तब बहुत तगड़ा फ़साद खड़ा हो गया. अनेक सिपाही बुरी तरह घायल हुए. अन्त में ये सभी पकड़े गये और 10 से 40 दिनों तक क़ैद की सज़ा हुई.

उधर, अप्रैल माह में इटली में किसानों को उकसाकर अनेक स्थानों पर बग़ावतें खड़ी कर दीं. वहाँ भी इनके साथी पकड़े गये, जिनमें से काफ़ी बरी हो गये. उनका विचार अब इसी तरह से प्रचार का था इसलिए वे कहा करते थे – Neither money nor organizations nor literature was needed any longer for (for theri propaganda work). One human being in revolt with torch or dynamite was off to instruct the world. अर्थात प्रचार-कार्य के लिए न तो धन की आवश्यकता है, न बड़े पोथों की और न बड़े भारी संगठन की. कोई भी एक आदमी – जिसने हाथ में मशाल पकड़ी हुई हो, जिससे वह आग लगा सके या डाइनामाइट हो जिससे वह एक बार मकानों और ऐसे इन्सानों को उड़ा सके – सारी दुनिया को अपनी इच्छानुसार शिक्षा दे सकता है।

अगले बरस, 1868 से बस ऐसे कामों ने ज़ोर पकड़ लिया. बर्लिन में इटली का बादशाह हम्बर्ट जब अपनी बेटी के साथ मोटरकार में जा रहा था, तब उसे मारने का प्रयास किया गया. शहंशाह विलियम को एक साधारण नवयुवक ने गोली मार दी. तीन हफ्ते बाद डॉक्टर कार्ल नौवलिग ने एक बार खिड़की में से शहंशाह पर गोली चला दी. जर्मनी में उस समय ग़रीब मज़दूरों के भाषणों को निर्मम ढंग से कुचला जा रहा था. उसके बाद एक दिन गोष्ठी करके फ़ैसला लिया गया था कि जिस प्रकार भी सम्भव हो, इस भ्रष्ट पूँजीवादी वर्ग और उसकी मददगार सरकार एवं पुलिस आदि को भयभीत किया जाये.

15 दिसम्बर, 1883 को विलीरिड फ्लोडसोर्फ में उलुबैक नाम के कुख्यात पुलिस अफ़सर को मार डाला गया. 23 जून, 1884 को रुजेट को इसी अपराध में फाँसी दे दी गयी. अगले ही दिन इसके बदले में ब्लेटिक, पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी गयी. आस्ट्रिया की सरकार ग़ुस्से में आ गयी और वियना में पुलिस ने ज़बरदस्त घेराबन्दी करके अनेक व्यक्ति गिरफ्तार कर लिये और दो को फाँसी पर टाँग दिया.

उधर लियुन में हड़तालें हुईं. एक हड़ताली फुरनियर ने अपने पूँजीपति मालिक को गोली मार दी. उसके अभिनन्दन समारोह में एक पिस्तौल उपहार-स्वरूप दी गयी. 1888 में वहाँ बहुत गड़बड़ी मची हुई थी और रेशम के मज़दूर भूखों मर रहे थे. पूँजीपतियों के समाचारपत्र मालिक और उनके दूसरे धनी मित्र एक जगह ऐश उड़ाने में मसरूफ़ थे. वहीं एक बम फेंक दिया गया. अमीर लोग काँप उठे. 60 अराजकतावादी पकड़े गये. उनमें से केवल तीन ही बरी किये गये लेकिन फिर भी असली बम फेंकने वाले की बहुत तलाश की जाती रही. अन्त में वह पकड़ा गया और फाँसी पर लटका दिया गया. बस इस तरह ही उनके विचारों की लाइन पर काम चल पड़ा. फिर तो जहाँ भी हड़ताल होती, वहीं क़त्ल भी हो जाता. इन बातों का ज़िम्मेदार भी अराजकतावादियों को ही ठहराया जाता, इसलिए इस नाम से ही लोग थर-थर काँपने लगे.

उधर एक जर्मन अराजकतावादी जहानमोस्ट, जो पहले दफ़्तरी का काम करता था, 1882 में अमेरिका जा पहुँचा. उसने भी यह विचार जनता के समक्ष रखने आरम्भ किये. वह भाषण बड़ा सुन्दर देता था और उसका अमेरिका में बहुत प्रभाव पड़ा. 1886 में शिकागो आदि में बहुत-सी हड़तालें हो रही थीं. एक काग़ज़-कारख़ाने के मज़दूरों में एक अराजकतावादी स्पाईज उपदेश दे रहा था. कारख़ाना-मालिकों ने इसे बन्द करने की कोशिश की. वहाँ लड़ाई हो गयी. पुलिस बुलायी गयी, जिसने आते ही गोली चला दी. छह आदमी मारे गये और कई ज़ख़्मी हो गये. स्पाईज को ग़ुस्सा आया. उसने स्वयं जाकर एक नोटिस कम्पोज करके मुद्रित कर दिया कि मज़दूरों को मिलकर अपने निरपराध भाइयों के ख़ून का बदला लेना चाहिए. अगले दिन 4 मई, 1886 को ‘हे मार्केट’ में जलसा था. शहर का अध्यक्ष इसे देखने आया था. उसने देखा कि वहाँ कोई आपत्तिजनक बातें नहीं हो रही हैं. वह चला गया। बाद में पुलिस ने आकर बिना आगा-पीछा देखे मारपीट करनी शुरू कर दी और कहा कि जलसा बन्द करो. तभी एक बम पुलिसवालों पर फेंका गया जिसके साथ ही बहुत से पुलिसवाले मारे गये. कई व्यक्तियों को पकड़कर फाँसी की सज़ा दे दी गयी. जाते-जाते उनमें से एक शख़्स कहने लगा – “मैं फिर कहता हूँ, मैं वर्तमान व्यवस्था का कट्टर दुश्मन हूँ. मैं चाहता हूँ कि हम इस राजसत्ता को मिटा दें और ख़ुद राजसत्ता का इस्तेमाल करें. आप शायद हँसें कि मैं तो अब बम नहीं फेंक सकूँगा लेकिन मैं बताता हूँ कि तुम्हारे ज़ुल्मों ने सभी मज़दूरों को बम सँभालने और चलाने पर मजबूर कर दिया है. यह जान लो कि मैं सच कह रहा हूँ कि मेरे फाँसी लगने पर और भी कई आदमी पैदा हो जायेंगे. मैं तुम्हें घृणित दृष्टि से देखता हूँ और तुम्हारी राजसत्ता को मटियामेट कर देना चाहता हूँ. मुझे फाँसी चढ़ा दो.” ख़ैर, इस तरह बहुत-सी घटनाएँ होती रहीं लेकिन एक-दो प्रसिद्ध घटनाएँ और हुईं. अमेरिका के अध्यक्ष मैकनिल पर गोली चलायी गयी और फिर स्टील कम्पनी में हड़ताल हुई. यहाँ मज़दूरों पर ज़ुल्म ढाये जा रहे थे. उसके मालिक हैनरी-सी फ्रिक को अलेक्ज़ेण्डर नामक अराजकतावादी ने गोली मारकर ज़ख़्मी कर दिया, जिसे आजीवन क़ैद हो गयी. ख़ैर, इसी तरह अमेरिका में भी अराजकतावादियों के इस विचार का प्रचार और उस पर अमल होने लगा.

इधर यूरोप में भी अन्धेर चल रहा था. पुलिस और सरकार के साथ इन अराजकतावादियों का झगड़ा बढ़ गया. अन्त में एक दिन वैलेण्ट नाम के एक नवयुवक ने असेम्बली में बम फेंक दिया, लेकिन एक औरत ने उसका हाथ पकड़कर उसे बाधा दी, परिणामस्वरूप कुछ डिप्टियों के घायल होने के अलावा कुछ और विशेष न हुआ. उसने बड़ी बुलन्द आवाज़ में स्पष्टीकरण देते हुए कहा – “It takes a loud voice to make the deaf hear.” यानी बहरों को सुनाने के लिए बड़ी बुलन्द आवाज़ की ज़रूरत है. अब तुम मुझे सज़ा दोगे, पर मुझे इसका कोई भय नहीं क्योंकि मैंने तुम्हारे दिल को चोट पहुँचायी है। तुम जोकि ग़रीबों के साथ अत्याचार करते हो और मेहनत करने वाले भूखे मरते हैं और तुम उनका ख़ून चूस-चूसकर ऐश कर रहे हो. मैंने तुम्हें चोट मारी है. अब तुम्हारी बारी है.

उसके लिए बहुत-सी अपीलें की गयीं. सबसे ज़्यादा ज़ख़्मी हुए असेम्बली के सदस्य ने भी जूरी से कहा कि इस पर दया की जाये, लेकिन कार्नेट नामक अध्यक्ष की जूरी ने उनकी बातों को अस्वीकारते हुए उसे फाँसी की सज़ा दे दी. बाद में एक इटैलियन लड़के ने एक छुरी कार्नेट के पार कर दी, जिस पर वैलेण्ट का नाम लिखा हुआ था.

इसी तरह हद दर्जे के अत्याचारों से तंग आकर स्पेन में भी बम चले और अन्ततः एक इटैलियन ने वजीर को मार डाला. इसी तरह यूनान के बादशाह, आस्ट्रिया की मलिका पर भी हमले किये गये. 1900 में गैटाने ब्रैसी ने इटली के बादशाह हर्बर्ट को मार डाला. इसी प्रकार वे लोग ग़रीबों की ख़ातिर अपनी ज़िन्दगियों से खेलते रहे और हँसते-हँसते फाँसी पर चढ़ते रहे…इसलिए उनके विरोधी भी उनके विरुद्ध कुछ नहीं कर सकते. उनके अन्तिम शहीदों साको और वैल्जेटी को अभी पिछले साल फाँसी हुई. वे जिस दिलेरी से फाँसी पर लटके, सब जानते हैं. बस यही संक्षिप्त इतिहास है – अराजकतावाद और उसके कार्यों का. अगली बार साम्यवाद के बारे में लेख लिखेंगे.

(July, 1928)

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Taken from  “Bhagat Singh aur Unke Sathiyon ke Sampoorna Uplabdha Dastavez” published by Rahul Foundation
 


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